भारत एक संघीय प्रणाली प्रदान लोकतांत्रिक देश है जिसमें एक समान आचार संहिता, एक कानून, एक दृष्टिकोण और सामाजिक समरसता जैसी बाते अक्सर प्रत्येक व्यक्ति के सुनने में आती हैं। इसी तरह कानून प्रणाली में मौलिक अधिकारों की दृष्टि से सामाजिक व्यवस्था व सरकारी रूपरेखा को एक साफ दृष्टिकोण देने के लिए सन 2005 में बना सूचना का अधिकार अधिनियम। इस अधिनियम या कानून पर चर्चा करने से पूर्व हमें इस बात पर चर्चा करनी होगी कि आखिर ऐसे कानून की आवश्यकता क्यों पड़ी?
सभी लोग समाज का एक अभिन्न अंग हैं, प्रत्येक व्यक्ति को सरकारी कार्यालयों में किसी न किसी विषय के संबंध में आना जाना पड़ता है या यूं कहें कि चक्कर काटने पड़ते हैं। सूचना का अधिकार नियम के अंतर्गत हम किसी भी कार्यालय की जानकारी मांग लेते हैं, लेकिन अक्सर देखा जाता है कि अगर हम किसी भी कार्य हेतु किसी भी कार्यालय में जाते हैं तो वहां पर आपकी समस्या का समाधान तो दूर की बात है वहां बैठे सज्जनों को उस विषय पर बात सुनना भी गवारा नहीं होता जिसके लिए आप वहां गए हैं तथा उस विषय की बात भी उन्हें उनके कार्यक्षेत्र से बाहर की बात लगती है। ज्यादा परेशानी उन लोगों को होती है जिनके पास कोई जुगाड़ नहीं होता, जुगाड़ से मेरा अभिप्राय प्रेम भेंट या सिफारिश से है। उनके लिए कानून व्यवस्था या किसी विषय में किसी भी कार्यालय में जानकारी प्राप्त करने का अर्थ यमराज से मुलाकात का दिन जानने जैसा है और यह किसी एक सरकारी कार्यालय या विभाग का नहीं बल्कि सभी का यही दृष्टिकोण है।
अब हमारे देश में यह नियम लागू हुए भले ही 5 वर्ष बीत गए हों लेकिन आज तक इसका सही फायदा कम से कम समाज में रहने वाले लोग तो नहीं उठा पाए और अधिकतर लोगों को तो आज तक इसकी जानकारी भी नहीं है कि इस प्रकार का कोई कानून भी है तथा यदि किसी को जानकारी है भी तो कोई पूछी हुई जानकारी देना नहीं चाहता। इन सब तथ्यों को देखकर लगता है कि यह मात्र एक अधिकार ही बनकर रह गया है। सरकारी कायालयों का हाल तो ये है कि आप किसी भी कार्यालय में चले जाइए वहां पर बैठे जनाब आपकी बात सुनने को तैयार तक नहीं होते बल्कि कई तो उल्टे बेइज्जत करने से भी बाज नहीं आते। आखिर ऐसा क्यों है कि सरकारी तंत्र का प्रत्येक कार्यालय आज प्रार्थी को मीठी गोली थमाने का काम कर रहा है। क्या यह प्रणाली देश के विकास में योगदान दे पाएगी और हम कैसे विकसित भारत का स्वप्न देख रहे हैं?
अगर ये सब त्यागकर हम समान अधिकारों का पालन करेंगे तभी हमारा देश विकास कर पाएगा। सूचना के अधिकार के तहत आप आम सादे कागज पर अपनी प्रार्थना लिखकर किसी भी विषय से संबंधित सूचना प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन सरकारी तंत्र के लोग इस कानून को धत्ता बताते हुए निर्धारित समय सीमा के अंदर जानकारी देने से गुरेज करते हैं और किसी भी कार्यालय में आरटीआई की डाक आना फिजूल का कार्य समझा जाता है और उसे जैसे तैसे निपटाने का प्रयास किया जाता है। कानून आखिर क्यों बनते हैं और अगर बनते हैं तो उन पर अमल क्यों नहीं होता?
इन परिस्थितियों के लिए कौन जिम्मेदार है सरकारें, सरकारी तंत्र या प्रणाली? जब हम किसी भी विषय में लिखित में जानकारी देने पर विवश होते हैं तो क्यों नहीं हम मौखिक रूप से पूछे जाने पर सही जानकारी देते? ऐसा नहीं है कि जो लोग ऐसा व्यवहार करते हैं उन्हें सिस्टम में से नहीं गुजरना पड़ता, लेकिन इसके बावजूद भी वे लोग अपनी आदत से मजबूर होते हैं और यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि क्या करें भाई सिस्टम ही ऐसा है। आखिर इस सिस्टम को कब तक झेलना पड़ेगा और कब समाज को निजात मिल पाएगी इस सिस्टम शब्द से?
अब यदि हम सूचना के अधिकार की बात करें तो क्या वास्तव में इसकी पालना हो रही है? क्या यह मात्र एक नियम ही बनकर रह जाएगा? मैं इस लेख के माध्यम से इस विषय ये जुड़े सभी व्यक्तियों से अपील करूंगा कि वे अपने आफिसर होने की बात को भूलकर ये सोचें कि वे इस समाज का अंग हैं तथा सभी से समान व्यवहार करते हुए लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरें ताकि लोग आपके बारे में कुछ अच्छा सोच सकें।
जितेंद्र अग्रवाल, ओढ़ां
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